Bhagvan Shri Krishn ne apni adhuri ras lila ko purn karne ke liye mavji maharaj ka rup liya evam beneshwar mai ras rachakar purn ki
Sunday, 20 August 2017
Tuesday, 1 August 2017
परमात्मा का धरती पर अवतरण ...
1.
ब्रम्हांड की आवधिक विघटन के प्रलय के ठीक पहले जब प्रजापति ब्रह्मा के मुँह से वेदों का ज्ञान निकल गया, तब असुर हयग्रीव ने उस ज्ञान को चुराकर निगल लिया। तब भगवान विष्णु अपने
प्राथमिक अवतार मत्स्य के रूप में अवतीर्ण हुए और स्वयं को राजा सत्यव्रत मनुके सामने एक छोटी, लाचार मछली बना लिया।
सुबह सत्यव्रत सूर्यदेव को अर्घ्य दे रहे थे तभी एक मछली नें उनसे कहा कि आप मुझे
अपने कमंडल में रख लो। दया और धर्म के अनुसार इस राजा ने मछली को अपने कमंडल में
ले लिया और घर की ओर निकले, घर
पहुँचते तक वह मत्स्य उस कमंडल के आकार का हो गया, राजा नें इसे एक पात्र पर रखा परंतु
कुछ समय बाद वह मत्स्य उस पात्र के आकार की हो गई। अंत में राजा नें उसे समुद्र
में डाला तो उसने पूरे समुद्र को ढँक लिया। उस सुनहरी-रंग मछली ने अपने दिव्य
पहचान उजागर की और अपने भक्त को यह सूचित किया कि उस दिवस के ठीक सातवें दिन प्रलय
आएगा तत्पश्चात् विश्व का नया श्रृजन होगा वे सत्यव्रत को सभी जड़ी-भूति, बीज और पशुओं, सप्त ऋषि आदि को इकट्ठा करके
प्रभु द्वारा भेजे गए नाव में संचित करने को कहा।
फिर यह अति-विशाल मछली हयग्रीव को मारकर वेदो को गुमनाम होने
से बचाया और उसे ब्रह्मा को दे दिया। जब ब्रह्मा अपने नींद से उठे जो परलय के अन्त
में था, इसे
ब्रम्ह की रात पुकारा जाता हैं, जो गणना के आधार पर 4 320 000 000 सालो तक चलता है। जब ज्वार
ब्रम्हांड को भस्म करने लगा तब एक विशाल नाव आया, जिस पर सभी चढ़े। मत्स्य भगवान ने उसे
सर्पराज वासुकि को डोर बनाकर बाँध लिया और सुमेरु पर्वत की ओर प्रस्थान
किया।
रास्ते में भगवान मत्स्य नारायण ने मनु (सत्यव्रत) को मत्स्य पुराण सुनाया और इस तरह प्रभु ने सबकी प्रलय से रक्षा की, तथा पौधों तथा जीवों की नस्लों
को बचाया और मत्स्य पुराण की विद्या को नवयुग में प्रसारित किया
2.
समुद्र मंथन और भगवान विष्णु के कुर्म अवतार की
कहानी Samudra
Samudra Manthan समुद्रमंथन हिन्दू पुराणों का सबसे
महत्वपूर्ण अध्याय है जिसे भगवतपुराण ,महाभारत और विष्णु पुराण में बताया गया है किस तरह समुद्र मंथन से अमृत निकलता
है और देवताओ की असुरो पर जीत होती है | आइये आपको Samudra
Manthan समुद्र मंथन और
भगवान विष्णु के कुर्म अवतार Kurma Avatar Story in Hindi की कहानी बताते है |
सतयुग की बात है एक दिन देवो के राजा इंद्र
अपने हाथी एरावत पर सवारी कर रहे थे | उनको मार्ग में ऋषि दुर्वासा मिले जिन्होंने इंद्र को भगवान शिव की दी हुयी एक
विशेष माला पहनाने का प्रस्ताव दिया | इंद्र के स्वयं को अहंकारी देवता की बात को गलत बताने के लिए , प्रस्ताव स्वीकार करते हुए माला को अपने हाथी
की सूंड को पहना दी |
हाथी ने ये
सोचकर माला को जमीन पर गिरा दी कि इंद्र को अपने अहंकार पर काबू नही रहा | ये देखकर ऋषि क्रोधित हो गये क्योंकि वो माला
अच्छे भविष्य के लिए प्रसाद के रूप में उन्होंने दी थी | क्रोधित दुर्वासा ने इंद्र और सभी देवो को
सभी शक्तियो बल और भाग्य को खो देने का श्राप दे दिया |
इस घटना के बाद असुरो के साथ हुए युद्ध में
उनकी पराजय हो गयी और सारे संसार का नियन्त्रण असुर राजा बाली के पास आ गया | सभी देव घबराए हुए भगवान विष्णु से मदद
मांगने गये |
भगवान विष्णु ने
सभी देवो को सलाह दी “अगर तुमको फिर से उनको अपना शोर्य पाना है तो
अमृत पीना होगा जिसके लिए तुम्हे समुद्रमंथन करना होगा | समुद्र की विशालता को देखते हुए तुम्हे
मंदराचल पर्वत को मंथन का आधार बनाना होगा और नाग देवता वासुकी को मंथन की रस्सी
बनानी होगी |
तुम उस
समुद्रमंथन के लिए इतने शक्तिशाली नही हो और तुमको असुरो से शान्ति समझौता कर उनसे
सहायता मांगकर उनको विश्वास दिलाना पड़ेगा कि Samudra Manthan समुद्रमंथन से निकलने वाले अमृत का बराबर
विभाजन किया जाएगा ओर मै तुमको विश्वास दिलाता हु कि अमृत केवल देवो को ही मिलेगा” |
Samudra Manthan समुद्रमंथन एक जटिल प्रक्रिया थी क्योंकि
नागो के देवता वासुकी को मंथन की रस्सी बनाकर और मंदराचल पर्वत को आधार बनाकर इस
कार्य को पूरा करना था |
भगवान विष्णु की
सलाह पर देवो ने नाग देवता के सिर को असुरो की तरफ और पूछ को देवो की तरफ रखने की
बात हुयी |
फलस्वरूप वासुकी
के विष की वजह से असुर विषाक्त हो गये | इसके बावजूद देवता और असुर फिर से नाग देवता के शरीर को आगे और पीछे खीचने लगे
ताकि मन्दराचल पर्वत घूमते हुए समुद्रमंथन Samudra Manthan कर सके| हालांकि जब मंदराचल पर्वत को समुद्र में उतारा गया तो ये डूबने लग गया था
जिसको विष्णु भगवान के दुसरे अवतार कुर्मअवतार Kurma Avatar में कछुआ बनकर बचाया और पर्वत को अपनी पीठ से सहारा दिया |
Samudra Manthan समुद्रमंथन के कारण समुद्र से कई वस्तुए
निकली जिसमे से एक हलाहल नामक घातक जहर था | ये देखकर देवता और दानव दोनों घबरा गये क्योंकि वो जहर इतना शक्तिशाली था कि
सारी सृष्टि को तबाह कर सकता था | देवता रक्षा के
लिए भगवान शिव के पास पहुचे और शिव ने सृष्टि को बचाने के लिए जहर पी लिया और उनका
गला नीला पड़ गया |
इसी कारण भगवान
शिव को नीलकंठ भी कहते है |
समुद्र की सारी
जड़ी बूटिया और 14
रत्न उस
समुद्रमंथन से निकले जिसे देवता और असुरो ने आपस में बाँट लिया |समुद्रमंथन से तीन प्रकार की देविया निकली
जिसमे से पहली देवी लक्ष्मी थी जिसे भगवान विष्णु ने अपनी अनंत पत्नी स्वीकार किया
|
दुसरी रम्भा
मेनका जैसी अप्सराये निकले जिसे साथी देवताओ ने चुन लिया | तीसरी कुरूप और तार्किक वरुनी जिसे असुरो को
अनिच्छा से स्वीकार करना पड़ा|
जिस तरह देविया निकली उसी तरह तीन प्रकार के
अलौकिक पशु उस समुद्रमंथन Samudra
Manthan से निकले | पहला पशु इच्छा पुरी करने वाली कामधेनु गाय , जिसे भगवान विष्णु ने अपनाकर ऋषियों को दे
दिया ताकि उसके दूध से बने घी का उपयोग वो यज्ञ में कर सके | दूसरा पशु एरावत और दुसरे हाथी जिसे देवो के
राजा इंद्र ने रख लिया |
तीसरा पशु दिव्य
साथ मुख वाला अश्व उच्चैश्रवस् जिसे असुरो ने रख लिया | इसके बाद तीन कीमती रत्न निकले जिसमे से
कौस्तुभ ,विश्ब का सबसे कीमती आभुष्ण जिसे भगवान
विष्णु ने धारण कर लिया |
दूसरा दिव्य फूल
के पेड़ परिजात जिसे इंद्र अपने देवलोक लेकर गये | तीसरा एक शक्तिशाली धनुष शारंग जो जुझारू राक्षसों का प्रतीक था | इसके अलावा समुद्र मंथन से निकलने वाले
चन्द्र ,
हलाहल ,शंक ,छाता कल्पवृक्ष और निद्रा थे |
अंत में स्वर्ग की चिकित्सक धन्वन्तरी देवी
अमृत का घड़ा लेकर समुद्रमंथन Samudra Manthan से निकले |
देवता और असुरो
के बीच अमृत को लेने के लिए भीषण लड़ाई शुर हो गयी | अमृत को असुरो से बचाने के लिए गरुड़देव उस घड़े को लेकर युद्धस्थल से उड़ गये | देवताओ ने भगवान विष्णु से अमृत पाने के लिए
प्रार्थना की तो भगवान विष्णु ने एक करामाती युवती का मोहिनी रूप लिया | मोहिनी ने असुरो का ध्यान भंग कर अमृत को
असुरो से छीन लिया और देवो को बाँट दिया जिसे उन्होंने पी लिया |
असुर राहुकेतु ने देवो के भेष में उस अमृत को
जैसे ही पीना चाहा ,
सूर्यदेवता और
चन्द्रदेव ने ये बात मोहिनी को सूचित की और उस अमृत के असुर के गले से गुजरने से
पहले विष्णु रूप मोहिनी ने सुदर्शन चक्र से उसका गला काट दिया |लेकिन अमृत उसके गले से गुजर जाने के कारण
उसकी मृत्यु नही हुयी |
उस दिन से उसके
सिर को राहू और शरीर को केतु कहते है |बाद में राहू और केतु ग्रह बन गये | अंत में असुरो को हराकर देवताओ ने फिर से देवलोक पर अपना राज शुर कर दिया |
हिन्दू धर्मशास्त्र में इस कथा को ओर आगे
बढ़ाते हुए बताया कि जब देव अमृत को लेकर असुरो से भाग रहे थे तो उसकी कुछ बुँदे
धरती के चार स्थानों पर गिर गयी | वो चार स्थान
जहा पर अमृत गिरा उनका नाम हरिद्वार , प्रयाग ,
नासिक और उज्जैन
है |
कथाओ के अनुसार
इन चार स्थानों पर रहस्यमय शक्ति और आध्यात्मिकता अर्जित हुयी | इन्ही चार स्थानों में से प्रत्येक स्थान पर
हर 12
वर्ष में कुम्भ
मेले का आयोजन होता हो |
लोगो का मानना
है कि कुम्भ मेले में नहाने से मोक्ष की प्राप्ति होती हो |
3.
§
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने जब दिति के गर्भ से जुड़वां रूप में जन्म लिया, तो धरती कांप उठी। आकाश में नक्षत्र और दूसरे लोक इधर से उधर दौड़ने लगे, समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें पैदा हो उठीं और
प्रलयंकारी हवा चलने लगी। ऐसा ज्ञात हुआ, मानो प्रलय आ गई हो। हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों पैदा होते ही बड़े हो
गए। दैत्यों के बालक पैदा होते ही बड़े हो जाते है और अपने अत्याचारों से धरती को
कपांने लगते हैं। यद्यपि हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों बलवान थे, किंतु फिर भी उन्हें संतोष नहीं था। वे संसार
में अजेयता और अमरता प्राप्त करना चाहते थे। हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों ने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए बहुत बड़ा तप किया।
उनके तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर कहा, 'तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूं। वर मांगो, क्या चाहते हो?' हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने उत्तर दिया,'प्रभो, हमें ऐसा वर दीजिए, जिससे न तो कोई युद्ध में हमें पराजित कर सके
और न कोई मार सके।' ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहकर अपने लोक में चले गए।
§
ब्रह्मा जी से अजेयता
और अमरता का वरदान पाकर हिरण्याक्ष उद्दंड और स्वेच्छाचारी बन गया। वह तीनों लोकों
में अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा। दूसरों की तो बात ही क्या, वह स्वयं विष्णु भगवान को भी अपने समक्ष तुच्छ मानने लगा।
हिरण्याक्ष ने गर्वित होकर तीनों लोकों को जीतने का विचार किया। वह हाथ में गदा
लेकर इन्द्रलोक में जा पहुंचा। देवताओं को जब उसके पहुंचने की ख़बर मिली, तो वे भयभीत होकर इन्द्रलोक से भाग गए। देखते
ही देखते समस्त इन्द्रलोक पर हिरण्याक्ष का अधिकार स्थापित हो गया। जब इन्द्रलोक
में युद्ध करने के लिए कोई नहीं मिला, तो हिरण्याक्ष वरुण की राजधानी विभावरी नगरी में जा पहुंचा। उसने
वरुण के समक्ष उपस्थित होकर कहा,'वरुण देव, आपने दैत्यों को पराजित करके राजसूय यज्ञ किया था। आज आपको मुझे पराजित करना पड़ेगा। कमर
कस कर तैयार हो जाइए, मेरी युद्ध पिपासा को शांत कीजिए।' हिरण्याक्ष का कथन सुनकर वरुण के मन में रोष तो
उत्पन्न हुआ, किंतु उन्होंने भीतर ही भीतर उसे दबा दिय। वे
बड़े शांत भाव से बोले,'तुम महान योद्धा और शूरवीर हो। तुमसे युद्ध
करने के लिए मेरे पास शौर्य कहां? तीनों लोकों में
भगवान विष्णु को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे युद्ध कर सके। अतः उन्हीं के पास जाओ। वे ही तुम्हारी युद्ध पिपासा
शांत करेंगे।' वरुण का कथन सुनकर हिरण्याक्ष भगवान विष्णु की
खोज में समुद्र के नीचे रसातल में जा पजुंचा। रसातल में पहुंचकर उसने एक विस्मयजनक
दृश्य देखा। उसने देखा, एक वराह अपने दांतों के ऊपर धरती को उठाए हुए चला
जा रहा है। वह मन ही मन सोचने लगा, यह वराह कौन है? कोई भी साधारण वराह धरती को अपने दांतों के ऊपर
नहीं उठा सकता। अवश्य यह वराह के रूप में भगवान विष्णु ही हैं, क्योंकि वे ही देवताओं के कल्याण के लिए माया
का नाटक करते रहते हैं। हिरण्याक्ष वराह को लक्ष्य करके बोल उठा,'तुम अवश्य ही भगवान विष्णु हो। धरती को रसातल
से कहां लिए जा रहे हो? यह धरती तो दैत्यों के उपभोग की वस्तु है। इसे
रख दो। तुम अनेक बार देवताओं के कल्याण के लिए दैत्यों को छल चुके हो। आज तुम मुझे
छल नहीं सकोगे। आज में पुराने बैर का बदला तुमसे चुका कर रहूंगा।' यद्यपि हिरण्याक्ष ने अपनी कटु वाणी से गहरी
चोट की थी, किंतु फिर भी भगवान विष्णु शांत ही रहे। उनके
मन में रंचमात्र भी क्रोध पैदा नहीं हुआ। वे वराह के रूप में अपने दांतों पर धरती
को लिए हुए आगे बढ़ते रहे।
§
हिरण्याक्ष भगवान
वराह रूपी विष्णु के पीछे लग गया। वह कभी उन्हें निर्लज्ज कहता, कभी कायर कहता और कभी मायावी कहता, पर भगवान विष्णु केवल मुस्कराकर रह जाते।
उन्होंने रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया। हिरण्याक्ष
उनके पीछे लगा हुआ था। अपने वचन-बाणों से उनके ह्रदय को बेध रहा था। भगवान विष्णु
ने धरती को स्थापित करने के पश्चात हिरण्याक्ष की ओर ध्यान दिया। उन्होंने
हिरण्याक्ष की ओर देखते हुए कहा,'तुम तो बड़े बलवान
हो। बलवान लोग कहते नहीं हैं, करके दिखाते हैं।
तुम तो केवल प्रलाप कर रहे हो। मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं। तुम क्यों नहीं मुझ
पर आक्रमण करते? बढ़ो आगे, मुझ पर आक्रमण करो।' हिरण्याक्ष की रगों में बिजली दौड़ गई। वह हाथ
में गदा लेकर भगवान विष्णु पर टूट पड़ा। भगवान के हाथों में कोई अस्त्र शस्त्र नहीं था। उन्होंने दूसरे ही क्षण हिरण्याक्ष के
हाथ से गदा छीनकर दूर फेंक दी। हिरण्याक्ष क्रोध से उन्मत्त हो उठा। वह हाथ में
त्रिशूल लेकर भगवान विष्णु की ओर झपटा।
§
भगवान ने शीघ्र ही
सुदर्शन का आह्वान किया— चक्र उनके हाथों में आ गया। उन्होंने अपने चक्र
से हिरण्याक्ष के त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। हिरण्याक्ष अपनी माया का
प्रयोग करने लगा। वह कभी प्रकट होता, तो कभी छिप जाता, कभी अट्टहास करता, तो कभी डरावने शब्दों में रोने लगता, कभी रक्त की वर्षा करता, तो कभी हड्डियों की वर्षा करता। भगवान विष्णु
उसके सभी माया कृत्यों को नष्ट करते जा रहे थे। जब भगवान विष्णु हिरण्याक्ष को
बहुत नचा चुके, तो उन्होंने उसकी कनपटी पर कस कर एक चपत जमाई।
उस चपत से उसकी आंखें निकल आईं। वह धरती पर गिरकर निश्चेष्ट हो गया। भगवान विष्णु
के हाथों मारे जाने के कारण हिरण्याक्ष बैकुंठ लोक में चला गया। वह फिर भगवान के
द्वार का प्रहरी बनकर आनंद से जीवन व्यतीत करने लगा।
§
भगवान विष्णु से
प्रेम करना भी अच्छा है, बैर करना भी अच्छा है। जो प्रेम करता है, वह भी विष्णुलोक में जाता है, और जो बैर करता है, वह उनसे दण्ड पाकर विष्णुलोक में जाता है।
प्रेम और बैर भगवान की दृष्टि में दोनों बराबर हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि
भगवान सब प्रकार के भेदों से परे, बहुत परे।
§
हिन्दू पंचांग के अनुसार नृसिंह
जयंती का व्रत वैशाख माह के
शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है. अग्नि पुराण में वर्णित कथाओं के
अनुसार इसी पावन दिवस को भक्त प्रहलाद की रक्षा करने के लिए भगवान विष्णु ने
नृसिंह रूप में अवतार लिया था. जिस कारणवश यह दिन भगवान नृसिंह के जयंती रूप में
बड़े ही धूमधाम और हर्सोल्लास के साथ मनाया जाता है. भगवान नृसिंह जयंती की व्रत
कथा इस प्रकार से है-
§
कथानुसार अपने भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिए राक्षसराज
हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या करके ब्रह्माजी व शिवजी को प्रसन्न कर उनसे अजेय होने
का वरदान प्राप्त कर लिया. वरदान प्राप्त करते ही अहंकारवश वह प्रजा पर अत्याचार
करने लगा और उन्हें तरह-तरह के यातनाएं और कष्ट देने लगा. जिससे प्रजा अत्यंत दुखी
रहती थी. इन्हीं दिनों हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम
प्रहलाद रखा गया. राक्षस कुल में जन्म लेने के बाद भी बचपन से ही श्री हरि भक्ति
से प्रहलाद को गहरा लगाव था.
§
हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद का मन भगवद भक्ति से हटाने के लिए
कई असफल प्रयास किए,
परन्तु वह सफल नहीं हो सका. एक बार उसने अपनी बहन होलिका की सहायता
से उसे अग्नि में जलाने के प्रयास किया, परन्तु प्रहलाद पर
भगवान की असीम कृपा होने के कारण उसे मायूसी ही हाथ लगी. अंततः एक दिन उसने
प्रहलाद को तलवार से मारने का प्रयास किया, तब भगवान नृसिंह
खम्भे से प्रकट हुए और हिरण्यकशिपु को अपने जांघों पर लेते हुए उसके सीने को अपने
नाखूनों से फाड़ दिया और अपने भक्त की रक्षा की.
§
भक्तों के अनुसार इस दिन यदि कोई व्रत रखते हुए श्रद्धा और
भक्तिपूर्वक भगवान नृसिंह की सेवा-पूजा करता है तो वह सभी जन्मों के पापों से
मुक्त होकर प्रभु के परमधाम को प्राप्त करता है.
§ भगवान परशुराम Parshuram के पितामह महान ऋषि रिचिका थे
जो एक प्रसिद्ध ऋषि भृगु के पुत्र थे | एक दिन ऋषि रिचिका अपने लिए वधु की
खोंज में नगर से बाहर भ्रमण करने को निकले | उस समय दो वंश प्रमुख थे भरत-सूर्यवंश
और चन्द्र वंश | चन्द्र
वंश में गधी नामक एक राजा था जिसके सत्यवती नाम की पुत्री थी जिसका विवाह नही हुआ
था | रुचिका
ने उस नगर में प्रवेश किया और उसने राजकुमारी को दासियों के साथ बाहर जाते देखा | ऋषि उस राजकुमारी को देखकर मंत्रमुग्ध हो गये और अगले दिन
राजा के दरबार में पहुच गये |
§ ऋचिका ने दरबार में अपना परिचय
दिया “महाराज , मेरा नाम ऋचिका है मै चावन्य का
पुत्र हु ” | चावन्य उस दौर में सबसे शक्तिशाली ऋषि थे | राजा ने ऋषि का स्वागत किया और
नगर में आने का उद्देश्य पूछा | ऋषि ने उत्तर दिया “कल मैंने आपकी पुत्री को देखा , वो बहुत सुंदर और गुणवान है , मै ऋषि हु और अपने तप से मै
आपकी पुत्री को खुश रखूंगा , अगर आपको
कोई आप्पति ना हो तो मै आपकी पुत्री से विवाह करना चाहता हु “|
§ राजा गधी ये सुनकर स्तब्ध रह
गया क्योंकि उसने अपनी पुत्री के लिए ऐसे वर की कामना नही की थी | उसकी महलो में पली बढी पुत्री जंगलो में एक
सन्यासी के साथ कैसे रह सकती है | लेकिन वो ऋषि को मना भी नही कर सकता था | अब उस राजा ने धूर्तता से ऋषि
की ओरदेखते हुए कहा “ऋषिवर , मै अपनी पुत्री का विवाह आपसे
कराकर धन्य हो जाऊँगा लेकिन मेरी बेटी को विदा करने से पूर्व आप मुझे एक काले कान
वाले हजार घोड़े भेंट करे ” | राजा आश्वस्त था कि वो ऋषि ऐसे दस घोड़े भी नही ढूंड पायेगा |
§ अब निराश ऋषि रुचिका नगर छोडकर
भगवान वरुण की तपस्या करने लगे | उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर वरुणदेव प्रकट हुए और
वरदान मांगने को कहा | ऋषि ने
समुद्र के देवता वरुण देव से एक काले कान वाले एक हजार घोड़ो का वरदान माँगा | वरुण देव ने उन्हें वरदान देते
हुए घोड़े ऋषि को दे दिए | अब वो
घोड़े लेकर राजा गधी के पास गये और उसके साथ एक हजार घोड़ो को देखकर राजा स्तब्ध रह
गया | अब उसके
पास कोई विकल्प नही बचा और उसने अपनी पुत्री का विवाह ऋषि से करवा दिया |
§ सभी को अचरज में डालते हुए सत्यवती ने
उस ऋषि के साथ कुटिया में अपने जीवन को ढाल लिया | आश्रम में सभी लोग उसे स्नेह करते थे
लेकिन उसको केवल एक चिंता खाए जा रही थी | ऋषि रिचिका ने जब अपनी पत्नी को
परेशान देखा तो उससे उसकी परेशानी का कारण पूछा | सत्यवती ने ऋषि को बताया कि वो अपने
पिता के लिए चिंतित है क्योंकि वो अपने पिता की इकलौती पुत्री थी और उसके पिता के
बाद साम्राज्य को सँभालने वाला कोई नही था |
§ ऋषि ने सत्यवती से कहा “अगर तुमने पहले ही अपनी परेशानी
बताई होती तो इसे मै पहले ही सुलझा देता “| अपने ध्यान की शक्ति से उसने दो
औषधिया उठाई और उसे अपनी पत्नी को देते हुए कहा “ये औषधिया अपनी माँ को देना और इसकी
शक्ति से उत्त्पन सन्तान बहुत शक्तिशाली होगी, इसमें से एक औषधि से एक महान ऋषि का
जन्म होगा और दुसरी औषधि से एक महान योद्धा का जन्म होगा , तुम योद्धा वाली औषधि अपनी माँ
को दे देना जिससे उनको एक शूरवीरयोद्धा का जन्म होगा ” | सत्यवती ने उन दोनो
औषधियो को अपनी माँ को दे दी और इसकी शक्तियों के बारे में बताया |उसने उन दोनों औषधियो के बारे में अपनी माँ को
बताया | उसने योद्धा वाली औषधि को माँ से लेने को कहा और
दुसरी स्वयं के लिए रखने को कहा |
§ सत्यवती की मां को संदेह हुआ
क्योंकि वो उस ऋषि पर विश्वास नही करती थी | उसने सोचा कि दुसरी औषधि से उसके
शूरवीर पुत्र होगा इसलिए उसने अपनी औषधिया बदल दी | सत्यवती ने योद्धा वाली औषधि पी ली और उसकी माँ ने ऋषि
वाली औषधि पी ली | गढ़ी की
पत्नी के एक पुत्र हुआ जिसका नाम कौशिका था | हिन्दू पुराणों में कौशिका बहुत
प्रसिद्ध है | कौशिका
ने कामधेनु गाय के लिए ऋषि वशिष्ट से लड़ाई की थी लेकिन ऋषि वशिष्ट के तप से वो हार गया |आशाहीन कौशिका अपना राजपाट
त्यागकर साधू बनने का प्रण लिया |कौशिका एक मामूली साधू नही था उसने कठोर तपस्या की और वो
ब्रह्मऋषि विश्वामित्र बना | ऋषि
ऋचिका की शक्तियों की वजह से वो एक सबसे शक्तिशाली ऋषि बना था |
§ दुसरी तरफ सत्यवती जब गर्भवती
थी तक ऋषि रिचिका अचरज में पड़ गये क्योंकि उसकी पत्नी से निकलने वाली दिव्यज्योति
वो नही थी जैसी उसने अपेक्षा की थी | उसने अपनी पत्नी की तरफ देखते हुए कहा
“प्रिये , तुम्हारे गर्भ में पल रहा बच्चे
में एक ऋषि जैसी दिव्यज्योति नही बल्कि एक योद्धा जैसा तेज है ” | सत्यवती ये सुनकर चौंक गयी और
उसने जब इस पर विचार किया तो उसे पता चला कि ये सब उसकी माँ की वजह से हुआ है |
§ सत्यवती ने ऋषि रिचिका से कहा “मुझे एक योद्धा जैसी संतान नही
चाहिए , आप इसे
कृपा करबदल दीजिये , मुझे एक
योद्धा की माँ नही बनना है , मै उसको
आपके जैसा देखना चाहती हु ” | रिचिका ने निराश होते हुए अपनी पत्नी को देखकर सिर हिलाते हुए कहा “अगर तुम कहती हो तो मै ऐसा
करसकता हु जिससे वो योद्धा ना बने लेकिन उसकी योद्धा वाली शक्तिया उसके पास से नही
जा सकती …मै केवल
इसकी शक्तियों को अगली पीढी में भेज सकता हु…अगर तुम्हारा पुत्र नही तो तुम्हारा
पौत्र एक योद्धा बनेगा |” सत्यवती सहमत हो गयी |
§ ऋषि ने उसकी पत्नी को एक फल
खाने को कहा जिससे उसके पुत्र में योद्धा वाली शक्तिया नही रहेगी |रुचिका और सत्यवती के एक पुत्र
हुआ जिसका नाम जमदअग्नि था वो भी के महान सन्यासी था जिसे संसार के सप्तऋषि में से
एक माना जाता है | लेकिन
रिचिका के कथन अनुसार उसकी शक्तिया अगली पीढी में दिखेगी और जमदअग्नि के पुत्र परशुराम का
जन्म हुआ | रिचिका
की शक्तियों की वजह से वो संसार का सबसे महान योद्धा बना | ऐसा माना जाता है कि भगवान
विष्णु के इस अवतार का जन्म संसार के सारे राजाओ को समाप्त करने के लिएय हुआ था
इसलिए वो अभिमानी और घमंडी था |
§ जमदअग्नि की पत्नी रेणुका ने
परशुराम से पहले चार पुत्रो [वासु , विस्वावासु , बृहद्यानु ,ब्रुतवाकंवा ]को जन्म दिया था| पांचवे पुत्र के जन्म से पहले
जमदअग्नि ने अपनी पत्नी के साथ तप किया था जिससे उसके सबसे छोटे पुत्र का
जन्म हुआ जिसका नाम उन्होंने रामभद्रा रखा | राम एक शक्तिशाली योवन के साथ बड़े हुए
और अपने पिता के संरक्षण में उनकी तरह एक शातिशाली धनुर्धर बने |
Parshuram गंधमदन
पर्वत पर गये और भगवान शिव को प्रस्सन करने के लिए कठोर तपस्या करने लगे |
§ शिवजी ने प्रस्सन होकर वरदान
मांगने को कहा और परशुराम Parshuram ने दिव्य शस्त्र पाने का वरदान माँगा | शिवजी ने बताया कि वो उन्हें
वरदान तभी देंगे जब वो अपनी योग्यता सिद्ध करेंगे | कई वर्षो की तपस्या के बाद शिवजी फिर
प्रकट हुए और परशुराम को देवो एकशत्रु दैत्यों और दानवो का विनाश करने का आदेश दिय
| दैत्यों
और दानवो का विनाश करने के बाद परशुराम ने अपनी योग्यता सिद्ध करदी और भगवान शिव
से दिव्य अस्त्र प्राप्त कर लिया |
§ एक बार भगवान शिव ने उसकी युद्ध
कुशलता की परीक्षा लेने के लिए परशुराम को चुनौती दी और उन दोनों के बीच भयानक द्वंद्वयुद्ध 21 दिनों तक चला | जब Parshuram परशुराम भगवान शिव के त्रिशूल
के वार से बच गये तो उन्होंने शक्तिपूर्वक अपने दिव्य अस्त्र परशु से आक्रमण कर
दिया | उनके इस
वार से भगवान शिव के सिर पर घाव हो गया |भगवान शिव उनकी युद्ध कुशलता से बहुत
प्रस्सन हुए और भावुकता से उन्हें गले लगा लिया | भगवान शिव ने इस घाव को एक
आभुष्ण की तरह सुरक्षित करलिया जिसे भगवान शिव के हजारो नामो में से एक खंड-परशु
कहते है |
§ एक दिन Parshuram परशुराम भगवान शिव से मिलने
कैलाश पर गये | जब वो
द्वार पर आये तो भगवान गणेश ने उन्हें ये कहकर रोक लिया कि उनकी माता ने किसी को
भी अंदर आने से मना किया है | Parshuram परशुराम ने बाल गणेश को धमकी दी
कि यदि वो भगवान शिव से मिलने नही देना चाहता तो उससे युद्ध करे | इस लड़ाई में गणेश का बांया दात
टूट गया | जब देवी
पार्वती ने ये देखा तो क्रोधित होकर आदिशक्ति के रूप में परशुराम से कहा कि उसने उसके
पुत्र को हानि पहुचाई है इसलिए वो कभी क्षत्रिय के रक्त से संतुष्ट नही होगा | गणेश ने अपनी माता से परशुराम
को क्षमा करने को कहा और वो अपनी माता को प्रस्सन करने में सफल रहे |Parshuram परशुराम बाल गणेश से बहुत
प्रस्सन हुए और अपना दिव्य अस्त्र परशु उन्हें दे दिया |
§ Parshuram परशुराम की युद्ध की शक्तिया
संसार में सबसे अलग थी जिससे 21 बार कई अभिमानी और घमंडी राजाओ को हटा दिया
था | केवल कुछ योद्धा उसके शक्तियों का सामना कर पाए जिनमे से भीष्म
पितामह , द्रोणाचार्य
और कर्ण को उन्होंने युद्ध कला सिखाई थी | परशुराम अमर है और ऐसा माना जाता है
कि वो अभी भी पृथ्वी पर जीवित है और अपनी युद्ध कुशलता कल्कि को सिखा रहे है जी
कलयुग के अंत में पृथ्वी पर अवतार लेंगे | |Parshuram परशुराम अपने अगले अवतार के बाद
रुका |जब Parshuram परशुराम राम से मिले तब उन्हें
एहसास हुआ कि योद्धाओ और राजाओ को समाप्त करना आवश्यक नही है और राम से मिलने के
बाद उन्होंने मनुष्य जीवन छोड दिया और कभी वापस नही आये |
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